संहारक :- Awakening of Demon God

धराली, अहोम साम्राज्य की दक्षिणी सीमा पर बसा एक सीमान्त नगर!

हालांकि इस नगर का आकार कुछ विशेष नहीं था, परन्तु आर्थिक और राजनैतिक दृष्टि से यह नगर अहोम साम्राज्य के लिए विशेष महत्व रखता है। जहां एक ओर यह क्षेत्र प्राकृतिक संपदाओं से परिपूर्ण है, तो वहीं दूसरी ओर सीमावर्ती होने के कारण अन्य दो देशों से भी सीमा साझा करता है, जिस कारण यह नगर अहोम साम्राज्य में व्यापार का प्रमुख केंद्र है।

यहां आपको साधारण मसालों, रेशमी वस्त्रों या बहुमूल्य आभूषणों के अतिरिक्त अनेकों प्रकार की दुर्लभ जड़ी बूटियां भी बाजारों में बिकती मिल जाएंगी।‌ योद्धाओं और वैद्यकों के लिए दुर्लभ जड़ी बूटियां अत्यंत उपयोगी होती हैं, और यही कारण था कि इस नगर की प्रसिद्धि दूर दूर तक फैली हुई थी।

सुबह की सुरमयी धूप नगर के कनकाभ भवनों को चमकाते हुए राजपथ को नहला रही थी। नगर की जीवंत गलियां बाजारों और व्यापारियों से अटी पड़ी थी। फेरीवालों की आवाजें, धातुओं की खनक और मसालों की सुंगध वातावरण में फैली हुई थी।

परन्तु नगर की इस जीवंतता से दूर उस निर्जन पहाड़ी पर सब कुछ शांत था। दूर क्षितिज से उगता सूरज संसार में अपनी सुनहरी रोशनी बिखेर रहा था। शांभव पहाड़ी की चोटी पर एक पेड़ के नीचे बैठा चुपचाप उगते सूरज को निहार रहा था। उसकी आंखों में एक गहरी वेदना थी, जो अंदर ही अंदर उसे मसोस रही थी। एक रिक्तता का आभास, जिसे वो भुलाए से भी नहीं भूल पा रहा था।

अपना सब कुछ तो खो चुका था वो। अपना मान, अपना सामर्थ्य, अपनी प्रतिष्ठा... जो कुछ भी उसे परिभाषित करता था, आज उसके हाथों से फिसल चुका था और उसके पास मौन रहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। अब वो 'वो' शांभव जो नहीं रहा, जिसे लोग जानते थे और जिसका सम्मान करते थे।

अनजाने में ही उसके मुख से एक आह निकल गई। लोग सत्य ही कहते हैं कि अपनों की पहचान बुरे समय में ही होती है। मानव हृदय की परिवर्तनशीलता को देख वह आश्चर्य में था। कल तक वह इस नगर में किसी देवदूत से कम नहीं था। यश, वैभव, प्रतिष्ठा क्या नहीं था उसके पास? परन्तु आज उसने अपनी शक्तियां क्या गंवाईं, लोगों का उसके प्रति दृष्टिकोण ही बदल गया। कल तक लोग उसे किसी देवमंदिर की मूर्ति की तरह पूजते थे, और आज उसका मोल रास्ते के किसी पत्थर के समान भी नहीं।

आज अपना सब कुछ गंवाकर उसे इस सत्य का भान हुआ कि इस संसार में केवल बलवान का ही सम्मान होता है। लोग आपके चरित्र का नहीं, आपके पद और आपकी शक्ति का सम्मान करते हैं। यदि आपकी भुजाओं में सामर्थ्य नहीं है, तो फिर इस संसार में आपके लिए कोई स्थान नहीं। परन्तु खेद.. कि यह सत्य उसे बड़ी देर से समझ आया।

"समय वास्तव में बड़ी तेजी से बीतता है!" शांभव ने एक गहरी सांस छोड़ी। उसके होंठों पर एक उदास मुस्कान थिरक रही थी, मानों खुद का ही उपहास कर रहा हो।

"बिल्कुल! अच्छे भले युवक की बुद्धि किस क्षण भ्रष्ट हो जाए, कुछ कहा नहीं जा सकता।" पीछे से एक हंसती आवाज पर शांभव ने मुड़कर देखा तो आलोक, प्रभा और दमयंती को चढ़ाई चढ़ते हुए पाया।

आलोक, शांभव के बचपन का मित्र, जिनका संबंध रक्त संबंधी भाइयों से भी गहरा है, जबकि प्रभा और दमयंती दोनों द्रुमक कबीले की दो सुंदर रत्न! जहां एक ओर प्रभा सुंदर छरहरे बदन और  चंचल, सरल स्वभाव की युवती है, तो वहीं दमयंती सुंदरता और दंभ का प्रतिरूप।  जाने क्यों, पर उन तीनों को देखते ही शांभव के मुख पर अनजाने ही एक मुस्कान तैर गई। शायद यही तो मित्रता है, जब अपने सगे संबंधी भी बुरे समय में मुंह मोड़ ले, और तब आपके पास कुछ ऐसे लोग हों, जो आपकी गत पर आपसे कतराये नहीं!

"तो? यहां अकेले बैठकर क्या कर रहे हो? अगर रोने का मन है तो मेरा कंधा हमेशा हाजिर है!" चोटी पर पहुंचते ही आलोक शांभव को छेड़ते हुए बोला।

"मुझे लगा था यह कंधा केवल युवतियों के लिए है!" प्रभा भी आलोक की चुटकी लेते हुए बोली।

"हा! हा! हा! सच कहूं तो कुछ दिन पहले तक यह सत्य था परन्तु अब.. कुछ दिन पहले मुझे एक मित्र द्वारा त्याग और बलिदान का अर्थ समझाया गया तो अब मैं इतना सा त्याग करने में सक्षम हूं।" आलोक ठहाका लगाते हुए आलोक के बगल बैठ गया। वहीं प्रभा आलोक के दूसरी ओर, जबकि दमयंती शांभव के बगल बैठ गई। कुछ क्षण तक सब शांत हो गया, मानों दो प्रेमी जोड़े संसार के बंधनों से विरक्त हो, प्रकृति की सुंदरता में खोये हुए हो।

"क्या तुम लोगों को भी लगता है कि मुझसे भूल हुई है?" अनायास शांभव ने धीमे स्वर में प्रश्न किया। उसे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं था, परन्तु यह भी सत्य है कि लोगों की बदलती दृष्टि से वह आहत था और अब अपने सबसे निकटतम मित्रों का दृष्टिकोण जानना चाहता था।

"हां!" दमयंती ने सबसे पहले उत्तर दिया। आलोक ने सिर उठाकर देखा तो पाया वह भी उसे ही देख रही थी।

"इस संसार में तुमसे अधिक महत्वपूर्ण कुछ भी नहीं है शांभव। स्वयं यह संसार भी नहीं।" दमयंती ने सरल शब्दों में अपनी बात रखी। उसकी गर्वमयी आंखों में क्रोध था और साथ में था अथाह प्रेम और गहरी वेदना।

शांभव ने कोई उत्तर नहीं दिया। दमयंती ऐसी ही थी। गर्वमयी परन्तु सरल। उसे संसार के नियमों और आडंबरों से कोई अर्थ नहीं था। उसके लिए संसार में दो ही व्यक्ति महत्वपूर्ण थे। वह स्वयं और शांभव।

शांभव ने दमयंती से नजर हटाकर प्रभा और आलोक की ओर देखा, मानों‌ उनका उत्तर जानना चाहता हो।

"मुझे ज्ञात नहीं, परन्तु इसका उत्तर तो अब समय ही दे सकता है।" प्रभा का उत्तर किसी दार्शनिक की पहेली जैसा था। वहीं आलोक बस हंसकर रह गया।

"आलोक?" शांभव ने जोर दिया तो आलोक बस फीकेपन से मुस्कुराया और एक गहरी आह भरते हुए बोला, "मुझे ज्ञात नहीं! वैसे भी, जो बीत चुका है, उसके बारे में व्यर्थ चर्चा करने से क्या लाभ?"

"अर्थात् तुम भी मुझे दोषी मानते हो?" आलोक के स्वर में निराशा का भाव था।

"हां भी और नहीं भी।" आलोक शांभव को देखते हुए किसी दार्शनिक की भांति गंभीर स्वर में बोला, "प्रत्येक व्यक्ति अपने चयन के लिए स्वतंत्र है शांभव। यदि स्पष्ट कहूं तो हां, मुझे अवश्य लगता है कि तुमने शीघ्रता में वो निर्णय लिया, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं कि मैं तुम्हारे निर्णय का सम्मान नहीं करता। वैसे भी, यह तुम दोनों प्रेमियों के बीच की बात है इसलिए मेरा इस पर टिप्पणी करना और भी निरर्थक हो जाता है।"

आलोक की बात सुनकर पहाड़ी पर एकदम मौन सा छा गया। शांभव ने दमयंती की ओर देखा, जिसका चेहरा तो भावहीन था, परन्तु उसकी आंखों में उसकी वेदना स्पष्ट थी। यह देखकर शांभव ने मन ही मन एक आह भरी। व

ो और दमयंती बचपन के मित्र थे और हालांकि दमयंती ने कभी स्पष्ट कहा नहीं, परन्तु वो अपने प्रति दमयंती की भावनाओं से भी भलीभांति परिचित था।

"सबको लगता है कि मैंने राजकुमारी तरुणा के प्रेम में अंधा होकर वह निर्णय लिया था, परन्तु शायद ही कोई मेरे दृष्टिकोण को समझ पाये।" शांभव ने एक गहरी आह भरी, "राजकुमारी तरूणा मेरी मित्र है और महारानी ने एक बार मेरे प्राण बचाए थे, अतः मुझ पर उपकार था उनका। इसलिए जब उनकी एकमात्र संतति के प्राण संकट में थे, तो मैंने अपनी शक्तियां दांव पर लगाकर उसके प्राणों की रक्षा की। सत्य कहूं तो मैंने कभी राजकुमारी तरूणा को उस दृष्टि से देखा ही नहीं और न ही वो मुझसे प्रेम करती है। यदि हमारे परिजनों ने स्वयं यह विवाह नियत न किया होता तो शायद हममें से कोई इस बारे में सोचता भी नहीं।"

"मूर्ख!" दमयंती ने मात्र एक शब्द कहा और तुरंत शांभव से अपनी दृष्टि फेर ली। वो शांभव के लिए दुखी थी, परन्तु इस समय शांभव का उसे देखकर स्पष्टीकरण देना, उसके हृदय में अनजाने ही तरंगे उत्पन्न कर रहा था।

"तुम्हारा कथन सत्य है कि लोग तुम्हारा दृष्टिकोण नहीं समझते, परन्तु क्या तुम उनका दृष्टिकोण समझ रहे हो?" अचानक आलोक ने प्रश्न किया तो शांभव ने चौंककर उसकी ओर देखा। दमयंती और प्रभा भी आलोक को ही देख रहीं थी। जहां प्रभा के मुख पर झिझक थी तो वहीं दमयंती के चेहरे पर चेतावनी।

आलोक ने मानों दमयंती के मुख भावों को देखा ही नहीं और अपना कथन जारी रखा, "हर विषय पर प्रत्येक व्यक्ति के भिन्न मत हो सकते हैं शांभव। तुमने‌ अपना निर्णय लिया और अपनी शक्तियां खो दीं और अब तुम्हें शोक है कि कबीला और नगरवासी तुम्हें हेय दृष्टि से देख रहे हैं, परन्तु क्या कभी तुमने उनके दृष्टिकोण से इस विषय को देखा है?

"तुम द्रुमक कबीले और धराली नगर के इतिहास में सबसे मेधावी युवक थे। एक प्रखर योद्धा, एक नायक जो भविष्य में गर्व बनता धराली का और द्रुमक कबीले को नई ऊंचाइयों पर लेकर जाता, परन्तु एक दिन उन्हें पता चलता है कि उनका वह उभरता नेता, जिस पर उन्होंने अपनी सब आशायें बांधी थी, एक युवती के लिए अपनी शक्तियां गंवाकर वापस लौटा है, तो तुम उनसे क्या आशा रखते हो? तुम्हें शोक है अपने सम्मान के छिनने का? पर उन्होंने भी तो अपने नायक और भविष्य की उन सभी आशाओं को खो दिया है। तो अब तुम उनसे क्या आशा रखते हो? कि तुम्हारे इस कृत्य पर, जिसे वो लोग तुम्हारी मूर्खता समझते हैं, पर तुमसे सहानुभूति जताएं? जब तुमने अपना निर्णय लिया तो अब उसके परिणामों से भागने का क्या अर्थ है शांभव?"

पहाड़ी पर एक बार फिर से मौन छा गया। सबकी आंखे आलोक पर टिकी हुई थी। प्रभा के मुख शोक और लज्जा तैर रही थी। अंततः वह शांभव के मित्र थे और उसे हौसला देने आये थे, पर अभी अभी आलोक का कथन सांत्वना कम और आरोप अधिक था।

शांभव का मुख भावहीन था, परन्तु दमयंती के मुख पर प्रचंड क्रोध की झलक थी, मानों किसी का वध करने को तत्पर हो और शायद यह बात आलोक के अतिरिक्त किसी ओर ने कही होती तो अब तक उसका हृदय शांत हो गया होता। कोई शांभव को बुरा कहे यह उसके लिए असहनीय था। उसकी दृष्टि में शांभव से बढकर कुछ भी नहीं और यदि आलोक शांभव का मित्र न होता तो कदाचित वो अब तक प्रहार कर चुकी होती।

"तुम्हें लगता है कि मैं यह सब नहीं समझता?" शांभव ने शांत स्वर में प्रश्न किया। उसके स्वर में न वेदना थी न क्रोध।‌

"तो क्या तुम्हें अपने निर्णय पर संदेह या पछतावा है?" आलोक ने भी प्रश्न किया।

"नहीं।" शांभव का स्वर दृढ था। उसके हृदय में यह बात स्पष्ट थी कि किसी के उपकार के प्रतिफल में यदि प्राण भी गंवाने पड़े तो भी वह पीछे नहीं हटेगा।

"तो फिर इस प्रकार शोकाकुल रहने का क्या लाभ है?" आलोक का स्वर नरम हो गया, "तुमने अपना निर्णय लिया और अब भी अपने निर्णय पर दृढ़ हो तो फिर संसार क्या कहता है उससे क्या अंतर पड़ता है? यदि निर्णय लिया है तो परिणाम से पलायन क्यों?"

"मुझे स्वयं भी नहीं ज्ञात!" शांभव ने खोये स्वर में उत्तर दिया, "मुझे न तो अपने निर्णय पर कोई पछतावा है और न ही परिणाम से कोई भय! परन्तु मैं स्वयं अपनी मनोस्थिति को नहीं समझ पा रहा हूं।" कहते हुए शांभव फीकेपन से हंसा, "मैं जानता था कि मेरे निर्णय के क्या परिणाम होंगे, परन्तु अब... मैं अब भी अपने निर्णय पर अडिग हूं, परन्तु इसका यह अर्थ तो नहीं कि मैंनें अपनी शक्तियों के साथ साथ अपनी भावनाओं को भी तिलांजलि दे दी है! शायद तुम मेरी दशा नहीं समझोगे। कल तक जिन लोगों की आंखों में मेरे लिए सम्मान और प्रेम था, आज वहां उपहास, घृणा और दया है। यहां तक कि मेरा अपना परिवार भी मुझे नहीं समझ रहा। मैंनें अपनी शक्तियां क्या खोंई, कुछ न बदलते हुए भी मानों सबकुछ बदल गया है। अब मुझे समझ आया कि इन लोगों को मुझसे अधिक मेरी शक्तियों में रुचि थी। अन्य लोगों से तो मुझे कोई आशा भी नहीं, परन्तु मेरा परिवार भी मेरे साथ नहीं है। तुम बताओ आलोक! ऐसे में मुझे क्या करना चाहिए? मेरा हृदय पत्थर का तो नहीं बना?"

"ऐसा नहीं है शांभव! हम सबको तुम्हारी चिंता है, बस.. बस हम लोगों को नहीं पता कि इन बदली परिस्थितियों में क्या प्रतिक्रिया दें? उन्हें कुछ समय तो दो।" प्रभा कोमल स्वर में समझाते हुए बोली।

"यही तो विडंबना है प्रभा कि कोई नहीं जानता, कोई नहीं समझता!" शांभव एक गहरी आह भरते हुए बोला, "मैं जानता हूं कि मैंनें क्या खोया है और इसके क्या परिणाम हैं। मैं जानता हूं कि बदलती परिस्थितियों में लोग भी बदलेंगें, परन्तु मुझे आशा थी कि कम से कम मेरे परिजन तो मुझे समझेंगें। मुझे मान सम्मान की कोई चाह नहीं है, न ही अपमान से मैं आहत होने वाला हूं। परन्तु मेरी मात्र यही इच्छा थी कि कम से कम लोग मुझे समझने की कोशिश तो करें। मुझे उनकी सांत्वना और सहानुभूति नहीं चाहिए, परन्तु क्या मैं सच में उपहास और घृणा का पात्र हूं?"

शांभव की भावुकता देखकर उनमें से किसी को भी समझ नहीं आया कि क्या उत्तर दें? शांभव की यह भावुकता उनके लिए नई थी। इससे पूर्व, शांभव एक सहृदय, दयालु परन्तु पारक्रमी योद्धा था और कम आयु के बावजूद भी, उसके चेहरे पर उसके मनोभावों को पढ पाना असंभव था।

कुछ देर की खामोशी के बाद अंततः दमयंती ने एक गहरी सांस भरी और शांभव को देखते हुए गंभीर स्वर में बोली, "शांभव,मैं जान सकती हूं कि तुम इस समय कैसा महसूस कर रहे हो। पिछले बारह वर्ष मैंनें भी ये एकांतता अनुभव की है। जब मेरे कबीले से मुझे द्रुमक कबीले में रहने भेजा गया था, तो मेरी भी यही स्थिति थी। तुम तो फिर भी वयस्क हो, मैं तो उस समय मात्र पांच बरस की बच्ची थी, परन्तु फिर भी राजनैतिक गठजोड़ के कारण मुझे मेरे परिवार से अलग, इन अजनबियों के बीच भेज दिया गया।"

"दमयंती..." शांभव को समझ नहीं आया कि दमयंती अनायास बालपन की उन घटनाओं का जिक्र क्यों करने लगी? उसे आज भी याद है, बारह बरस पहले, जब वो मात्र पांच बरस का था, तो उनके कबीले ने एक नए सदस्य का स्वागत किया था, दमयंती का।

दमयंती की वास्तविक पहचान सभी के लिए एक रहस्य थी। शायद केवल कबीले के ऊपरी लोग ही उसकी वास्तविक पहचान से परिचित हैं। शांभव को आज भी याद है, कि बालपन में दमयंती कितनी निर्दयी और क्रोधी हुआ करती थी। उसे लोगों से बात करना भी पसंद नहीं था और अगर कोई बालक उससे छेडखानी करने का एक ही परिणाम होता था, उसकी क्रूरता से पिटाई।

एक योद्धा के रूप में कुछ ही गिने चुने युवक दमयंती के आगे ठहर पाते थे और ऐसे में अक्सर उसे छेडने वाला कोई युवक उसके हाथों पिटते ही रहता था और ऐसे में उसका एक नाम कबीले के बालकों में प्रसिद्ध हो गया था, आंछरी।

आंछरी, अर्थात् एक सुंदर, परन्तु अत्यंत शक्तिशाली पारलौकिक शक्ति, जो कि दमयंती के मामले में सही भी था। उसकी प्रचंड शक्ति के आगे ठहर पाना ही कबीले के युवकों के लिए एक चुनौती थी और ऐसे में एक दिन दमयंती की मुलाकात हुई शांभव से।

जहां दमयंती क्रोध से परिपूर्ण नदी का आवेग थी, तो शांभव शांत सिंधु की तरह धीर और गंभीर। दोनों के बीच कई झडपें हुईं, जिनमें दमयंती कभी उसे हरा नहीं पाई, परन्तु वही शांभव के लिए भी सत्य था। दोनों कब प्रतिस्पर्धी और फिर मित्र बन गए, पता ही नहीं चला।

"शांभव, मुझे पता है कि बालपन से ही कबीले के लोग, खासक नौजवान मेरे विषय में क्या सोचते हैं।" दमयंती ने शांभव को देखते हुए नरम स्वर में कहा, "एक क्रूर और निर्दयी युवती, जिसे बस रक्तपात से ही आनंद मिलता है। परन्तु मेरे एक प्रश्न का उत्तर दो... तुम तो अपने निर्णय का परिणाम भोग रहे हो, परन्तु मेरी क्या भूल थी, जो मुझे बालपन में ही मेरे कबीले, मेरे माता-पिता से विलग कर दिया गया? केवल राजनीति..... परन्तु क्या मैंनें हिम्मत हारी? आज द्रुमक कबीले में तुम्हारे अलावा कौन था, जो मेरी शक्ति के आगे ठहर पाए? और कदाचित मेरे सर्वशक्तिशाली कबीले में भी मेरी आयुवर्ग में मुझसे प्रखर योद्धा शायद ही हो। इसलिए अपना धैर्य और साहस खोने से अच्छा है प्रयास करना।"

"प्रयास?" शांभव एक क्षीण हंसी के साथ बोला, "तुम्हारी सब बातें सहीं है दमयंती, परन्तु जानती हो मेरे साथ मूल समस्या यह है कि अब मेरे पास कदाचित कोई अवसर बचा ही नहीं है। जिस योद्धा का शक्ति केंद्र ही नष्ट हो गया हो, वह भला अगणित प्रयासों के बाद भी क्या कर सकता है?"

"संसार में कुछ भी असंभव नहीं है शांभव...." आलोक वार्तालाप में हस्तक्षेप करते हुए बोला, "कदाचित अभी हमारे पास तुम्हारी समस्या का हल नहीं है, परन्तु संसार बहुत बड़ा है और हम कोई न कोई हल अवश्य निकाल लेंगें।"

"मुझे झूठी आशाएं मत दो आलोक!" शांभव मुस्कुराते हुए अपना सिर हिलाकर बोला, "मैं जानता हूं कि इसका कोई उपाय नहीं है और मैंनें इस सत्य को स्वीकार भी कर लिया है। बस इन बदली परिस्थितियों में ढलने के लिए मुझे थोड़ा समय चाहिए।"

शांभव की उदास मुस्कान देखकर दमयंती मन मसोसकर रह गई। वो शायद पहले से ही जानती थी कि उन दोनों का मिलन बहुत ही कठिन होगा, परन्तु वर्तमान परिस्थितियों में यह असंभव सा प्रतीत होता है। वो जानती है, कि उसका कबीला एक साधारण मानव से उसके विवाह की अनुमति कभी नहीं देगा और अभी वो इतनी शक्तिशाली नहीं कि अपने कबीले के निर्णयों में हस्तक्षेप कर सके।

"जानते हो शांभव संसार में सबसे असंभव कार्य क्या है? किसी मृतक में प्राणों का संचार होना..." दमयंती दूर आकाश में निहारते हुए बोली, "परन्तु सुदूर दक्षिण में एक पौराणिक पक्षी पाया जाता है, मायापक्षी! कहते हैं, कि जब किसी मायापक्षी की मृत्यु समीप होती है, तो उसका पूरा शरीर अग्निशिखाओं से घिर जाता है और उसे जिंदा जलने की पीड़ा से गुजरना पड़ता है। परन्तु यदि वो इस पीड़ा को सह लेता है, तो न केवल अपनी मृत्यु को टाल देता है, अपितु एक दिव्य पक्षी का रुप बन जाता है।"

इतना कहकर दमयंती ने एक नजर शांभव पर डाली और दृढ़ स्वर में कहा, "अभी शायद हमारे पास तुम्हारी समस्या का हल नहीं, परन्तु भविष्य में मैं तुम्हारे लिए इसका उपचार अवश्य ढूंढ कर लाऊंगी। बस अपने हृदय की आशा को कभी बुझने मत देना, क्योंकि ये वो शांभव नहीं, जिसे मैं जानती हूं।"


क्रमशः-

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5 Comments

Gunjan Kamal

27-Dec-2023 03:29 PM

बहुत खूब

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Rupesh Kumar

27-Dec-2023 03:18 PM

Nice one

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Mohammed urooj khan

27-Dec-2023 12:47 PM

👌🏾👌🏾👌🏾👌🏾

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